बहुत समय पहले की बात है, हिमालय की गोद में स्थित एक सुंदर झील ‘मानसरोवर’ में दो हंस और एक कछुआ रहते थे। वे तीनों बहुत अच्छे मित्र थे और एक-दूसरे के बिना रह ही नहीं सकते थे। दिनभर साथ खेलते, बातें करते और समय बिताते थे। उन तीनों की दोस्ती इतनी गहरी थी कि वे एक-दूसरे के सुख-दुख में पूरी तरह साथ निभाते थे।
कछुआ बहुत बातूनी था। हर सुबह वह झील के किनारे एक ऊँचे टीले पर बैठ जाता और हंसों को ज्ञान की बातें सुनाने लगता। वह खुद को बहुत बड़ा ज्ञानी मानता था और हर बात में अपनी राय देता। हंस उसकी बातों को मजे से सुनते, लेकिन कभी-कभी उन्हें उसकी अधिक बोलने की आदत से परेशानी भी होती थी।
एक वर्ष मानसरोवर झील में भीषण सूखा पड़ा। पानी धीरे-धीरे सूखने लगा और वहां रहना मुश्किल हो गया। हंसों को चिंता हुई कि अब उनका मित्र कछुआ कैसे जीवित रहेगा। कछुए ने भी चिंता व्यक्त की और हंसों से कहा, “मुझे भी किसी दूसरी झील में ले चलो, मैं यहाँ नहीं रह सकता।”
हंसों ने उसकी मदद करने का निश्चय किया, लेकिन समस्या यह थी कि कछुआ उड़ नहीं सकता था। कछुए ने एक तरकीब सुझाई, “तुम दोनों एक मजबूत लकड़ी अपने चोंच में पकड़ लो और मैं बीच से उस लकड़ी को अपने मुँह से पकड़ लूँगा। इस तरह मैं लटककर उड़ जाऊँगा।” हंसों ने उसकी बात मान ली, लेकिन शर्त रखी कि उड़ान के दौरान वह कुछ भी नहीं बोलेगा, नहीं तो वह नीचे गिर जाएगा। कछुए ने सहमति दे दी।
दोनों हंस कछुए को लेकर उड़ गए। कछुआ पहली बार आकाश से धरती को देख रहा था, वह बहुत रोमांचित था। तभी नीचे से कुछ लोग बोले, “वाह! क्या बुद्धिमान हंस हैं, जो एक कछुए को भी उड़ाकर ले जा रहे हैं!” यह सुनकर कछुए का अहंकार जाग गया। उसने यह श्रेय खुद लेना चाहा और जैसे ही बोलने के लिए मुँह खोला, उसका मुँह लकड़ी से छूट गया और वह सीधा जमीन पर गिर पड़ा। दुर्भाग्यवश, नीचे एक शिकारी था जिसने उसे पकड़ लिया।
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि कभी-कभी चुप रहना बोलने से बेहतर होता है। अधिक बोलने या घमंड करने से नुकसान हो सकता है। समझदारी इसी में है कि सही समय पर मौन रहकर परिस्थितियों को संभाला जाए।
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