
गर्मियों की एक तपती दोपहर थी। एक लोमड़ी कई दिनों से भूखी-प्यासी जंगल-जंगल भटक रही थी। उसका शरीर थकान और कमजोरी से चूर हो चुका था, लेकिन पेट की आग ने उसे चैन से बैठने नहीं दिया। वह भोजन की तलाश में एक हरे-भरे वन में आ पहुँची, जहाँ पेड़ों पर रंग-बिरंगे फल और फूल खिले थे।
लोमड़ी की आँखों में चमक आ गई। वह सोचने लगी कि शायद आज किस्मत उसका साथ दे और उसे कुछ खाने को मिल जाए। उसने हर ओर नजर दौड़ाई, लेकिन ज़मीन पर कुछ भी खाने लायक नहीं दिखा। तभी उसकी नजर एक बेल पर पड़ी, जहाँ ऊपर की ओर रसीले, लाल-जामुनी अंगूरों के गुच्छे लटक रहे थे।
लोमड़ी की भूख और भी तेज हो गई। वह तुरंत बेल के पास पहुँची और अंगूरों को पाने के लिए बार-बार छलांग लगाने लगी। वह एक बार कूदी, फिर दोबारा, और फिर तीसरी बार… लेकिन हर बार अंगूर उसकी पहुँच से दूर ही रहे। बेल बहुत ऊँचाई पर थी और उसके कमजोर शरीर में अब ताकत नहीं बची थी।
लोमड़ी ने पेड़ के चारों ओर घूमकर रास्ता खोजा, शायद कोई नीचा हिस्सा मिल जाए। लेकिन सारी कोशिशें बेकार गईं। अंततः जब वह पूरी तरह थक गई और उसका शरीर पसीने से भीग गया, तब वह वहीं बैठ गई और अपने आप को दिलासा देते हुए बोली — “हूंह! ये अंगूर तो दिखने में ही खट्टे लगते हैं। वैसे भी मुझे खट्टे फल पसंद नहीं। मैं तो बस यूँ ही कोशिश कर रही थी।”
इतना कहकर वह वहाँ से सिर ऊँचा करके चली गई, मानो उसे अंगूरों में कोई दिलचस्पी ही न हो।
जब हम कोई लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते, तो हमें उसे कमतर बताने के बजाय, अपने प्रयासों में सुधार लाना चाहिए और दोबारा कोशिश करनी चाहिए। असफलता से सीखना समझदारी है, बहाने बनाना नहीं।
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