
नीलकंठपुर नामक गाँव में एक सुंदर बगीचा था जिसका नाम था आनंद वन। उस वन में एक पुराना और विशाल बरगद का पेड़ था, जिसकी छांव में अक्सर साधु-संत बैठकर भजन-कीर्तन और प्रवचन किया करते थे। पेड़ के ऊपरी हिस्से में बंदरों का एक झुंड भी रहता था। इन बंदरों में एक खास बंदर था, जिसका नाम था जॉनी।
जॉनी बाकी बंदरों से अलग सोचता था। उसे अपने साथियों की शरारतें और उछलकूद बिल्कुल पसंद नहीं थीं। वह खुद को दूसरों से बेहतर समझता था और हमेशा कहता, “मैं बंदर क्यों बना? मुझे इंसान होना चाहिए था। ये बंदर तो बस कूदते रहते हैं, कोई समझदारी नहीं।”
एक दिन किसी बात पर उसका अपने झुंड से झगड़ा हो गया। गुस्से में वह पेड़ से नीचे उतर आया और सोचने लगा कि अब वह इंसानों की तरह जिएगा। उसने पास में पड़ी एक फटी-पुरानी चादर उठाई, उसे शरीर पर लपेटा, माथे पर तिलक लगाया और बरगद के नीचे साधु की तरह बैठ गया।
जॉनी खुद को बहुत समझदार समझ रहा था, लेकिन तभी एक छोटा बच्चा अपने माता-पिता के साथ वहाँ आया और केले खाने लगा। जॉनी अपनी असली आदत से मजबूर, साधु के वेश में होते हुए भी खुद को रोक नहीं पाया और झट से उछलकर बच्चे के हाथ से केला छीनकर खाने लगा।
यह देखकर वहाँ बैठे असली साधु बहुत नाराज़ हो गए। उन्होंने लाठी से उसकी खूब पिटाई की और उसकी नकली चादर फाड़ दी। जॉनी डरकर वापस बरगद के पेड़ पर चढ़ गया, जहाँ उसके पुराने साथी बंदर उसका मज़ाक उड़ाने लगे।
एक बूढ़े बंदर ने हँसते हुए कहा, “क्यों जॉनी! गए थे इंसान बनने? नकल के लिए अकल चाहिए होती है!” सभी बंदर हँसने लगे और जॉनी को बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई।
उसने चुपचाप अपने झुंड में लौटकर सोचा, “हमें खुद से प्यार करना चाहिए। दूसरों की नकल करना कभी-कभी खुद के लिए नुकसानदायक हो सकता है। हर किसी की अपनी विशेषता होती है, बस हमें उसे पहचानना होता है।”
हमें अपनी पहचान पर गर्व करना चाहिए और खुद को बेहतर बनाने की दिशा में काम करना चाहिए। नकल करने की बजाय, अपने भीतर की खूबियों को समझना और निखारना ही असली सफलता की कुंजी है।
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